Sunday, June 21, 2009

मौसम ने अंगडाई ली

बदल छाये हैं घनघोर

रंग-बिरंगे पंखो वाले

नाच रहे हैं देखो मोर

.

सावन की रिमझिम बूंदे

क्यों बैठे हो आंखे मूंदे

हरियाली छाई हर ओर

नाच रहे हैं देखो मोर

.

बढ़ गयी फूलों की लाली

झूम रहे हैं डाली-डाली

चुप हो जा मत कर शोर

नाच रहे हैं देखो मोर

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चित्र साभार : google

Friday, June 12, 2009

यह ऊंचा मकान

जब अपनी ऊँचाई आंकता है

बेशरम

पड़ोस की झुग्गी-झोपड़ियों में

झांकता है
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आईना

पत्थरों के गाँव में,

सूरज पेड़ की छॉव में

मछली देखो

डूबने के डर से

बैठ गयी है नाव में

Tuesday, June 9, 2009


सच्चाई को कहना सीखो
सच्चाई को सहना सीखो

बुलंदी
के अभिलाषी हैं तो
कभी
कभार ढहना सीखो

उजड़
गए हैं घर तो क्या
चौराहों
पर रहना सीखो

पत्थर
-पत्थर छूकर गुज़रो
पानी
-पानी बहना सीखो
Saturday, June 6, 2009


मजदूर माँ के बच्चे का बचपन ऐसे ही पलता है ---- ! !
Friday, June 5, 2009

उजाड़कर बस्ती शोक मनाते हैं
कत्ल करके फिर आंसू बहाते हैं
.
गुमशुदा तलाश में पढ़कर नाम
ख़ुद ही को लोग ढूढ़ने जाते हैं
.
ख़ुद के चेहरों पर लगा कर दाग
आईनों पर देखिये कहर ढाते हैं
.
इस बस्ती से बेखौफ न गुज़रिये
बात-बात पे लोग खंज़र उठाते हैं
.
मज़हबी शिकंजे में जकडे़ ये लोग
फख्र से आज़ादी के गीत गाते हैं
Tuesday, June 2, 2009

आओ!
हम उस ज़मीन को सींचे
जिसके अन्दर
नन्हा बीज छटपटा रहा है
अंकुरित होने को
.
आओ!
हम उस ज़मीन में खाद डाले
जिसके अन्दर
कोमल अंकुर लड़ रहा है
कठोर परतों से
पल्लवित होने को

हमें विश्वास है
हारना ही होगा उन परतों को;
ज़र्ज़र होना ही है
उन दीवारों को
जिसके भीतर
सृजन का एक भी बीज विद्यमान है

आओ!
हम भी अंकुरित हो
एक साथ
ताकि भेद सकें
उन अवरोधों; रूढ़ियों को
जो हमारे अस्तित्व के
प्रस्फुटन में बाधक है

हमारीवाणी

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