Saturday, July 4, 2009

दिनभर काम किया
अब है थककर चूर-चूर
और नहीं है कोई
यह है एक मजदूर

इसको इसकी मेहनत का
प्रतिफल क्या मिलता है?
दो वक्त की रोटी भी
मुश्किल से इनको मिलता है
बच्चे इनके बिलख बिलख कर
खो देते हैं नूर
और नहीं है कोई
यह है एक मजदूर

खुले आसमान के नीचे रहकर
औरों का छत ये बनाते हैं
हिम्मत नहीं हारते हैं ये
गीत सदा ही गाते हैं
कब पहुचेंगे ये अपने घर?
घर से हैं ये दूर
और नहीं है कोई
यह है एक मजदूर

18 comments:

M VERMA said...

सही कहा है मज़दूरो की दास्तान यही है.
बखूबी आपने बयान किया है.
सुन्दर रचना

हर्ष प्रसाद said...

बहुत सुंदर..

Sajal Ehsaas said...

acha likha hai..pic bhi bahut achi hai

दिनेशराय द्विवेदी said...

एक दम यथार्थ रचना के लिए बधाई!

Unknown said...

इस नज़रिए के पक्षपोषण की जरूरत है।
बधाई।

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर लिखा है .. मजदूरों की वास्‍तविक दशा का चित्रण करती रचना !!

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

इस सुन्दर रचना के लिये बहुत बहुत धन्यवाद...

Razi Shahab said...

bahut sundar

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

आप की बात एकदम सही है....इस सुन्दर रचना के लिये बहुत बहुत धन्यवाद...

vijay kumar sappatti said...

razia ji

mazdooro par aapne abhut acchi gazal likhi hai...shabdo me jaise bhaavnaye bol rahi hai..

Aabhar

Vijay

Pls read my new poem : man ki khidki
http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/07/window-of-my-heart.html

anil said...

आभार इस सुन्दर रचना के लिए .

मुकेश कुमार तिवारी said...

रजिया जी,

मज़दूर की व्यथाकथा का यथा वर्णन, बहुत ही सुन्दर भाव और अभिव्यक्ती।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

AKHRAN DA VANZARA said...

सुन्दर कविता !!!!

सटीक चित्रण ....!!!!

Randhir Singh Suman said...

nice

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुंदर लिखा है .. मजदूरों की वास्‍तविक दशा का चित्रण

Udan Tashtari said...

यही है मजदूर!!

सही चित्रण किया!!

Yugal said...

बहुत अच्छा लेखन

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

आपकी कवीता 'मजदूर ' भाव पक्छ से बहुत मजबूत है। पर दो स्थानों में मुझे ग्रामर की गलतियां नज़र आ रहीं हैं। 1॥बहुत मुश्किल से रोटी उसको मिलता है की जगह मिलती है होनी चाहिय…। 2॥ औरों का छत की जगह औरों की छत होनी चाहिये॥

हमारीवाणी

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