Saturday, June 5, 2010

पूरा एक घंटा बीत गया था और नम्बर आ ही नहीं रहा था. अभी पाँच मरीज और बचे थे फिर मेरा नम्बर आने वाला था. मैं कुछ जगहों पर खुद को असहाय पाती हूँ : डाँक्टर के क्लीनिक में बैठकर अपनी बारी का इंतजार करना; प्लेटफार्म पर ट्रेन के आने का इंतजार और ..... तीसरा वाला क्यूँ बताऊँ !

अचानक एक आईडिया आया क्यों न अगली बार से अंतिम मरीज़ के रूप में खुद को दिखाऊँ अर्थात देर वाला नम्बर ले लिया जाये फिर शायद इतना इंतजार न करना पड़े. पर यह तो पता चले कि डाँक्टर कितने बजे तक क्लीनिक में बैठते है. काउंटर पर बैठा व्यक्ति खाली ही तो बैठा है चलो पूछ ही लेते है.

"भईया ! ज़रा बताना तो डाँक्टर साहब क्लीनिक से जाते है?"

"क्यों क्या बात है?"

"जी कुछ नहीं बस ऐसे ही. सोच रही थी कि अगली बार से मैं लास्ट में दिखाने आया करूँगी."

"जी कुछ ठीक नहीं है डाँक्टर जी के जाने का. जब क्लीनिक में आये सारे मरीज़ ख़तम हो जाते हैं तब जाते हैं."

और मैं चुपचाप वापस बैठ गयी.

हमारीवाणी

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