Friday, June 5, 2009
उजाड़कर बस्ती शोक मनाते हैं
कत्ल करके फिर आंसू बहाते हैं
.
गुमशुदा तलाश में पढ़कर नाम
ख़ुद ही को लोग ढूढ़ने जाते हैं
.
ख़ुद के चेहरों पर लगा कर दाग
आईनों पर देखिये कहर ढाते हैं
.
इस बस्ती से बेखौफ न गुज़रिये
बात-बात पे लोग खंज़र उठाते हैं
.
मज़हबी शिकंजे में जकडे़ ये लोग
फख्र से आज़ादी के गीत गाते हैं
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ग़ज़ल
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6 comments:
ख़ुद के चेहरों पर लगा कर दाग
आईनों पर देखिये कहर ढाते हैं
बहुत खूब रजिया जी। पूरी रचना अच्छी लगी। वाह। चलिए मैं भी कुछ जोड़ने की कोशिश करूँ-
चेहरा खुद का देखो तो डर लगता है।
लोग अपनी तस्वीर नहीं बनाते हैं।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
wah ! narayan narayan
सच कहा आपने...आजकल लोग दोहरा चरित्र रखते है...!जिनसे वफ़ा की उम्मीद होती है वे ही बेवफाई करते है....
मज़हबी शिकंजे में जकडे़ ये लोग
फख्र से आज़ादी के गीत गाते हैं
wahhhhhh
kya gahri baat kahi hai aapne
yakinan daad ki haqdaar hai aapki rachna
daad kubool karen
अच्छी गजल कही है आपने। बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सच को आईना दिखा दिया आपने।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }