Monday, July 13, 2009
जाने कितने सपने पालता है मन
फिर सपनों को खंगालता है मन
नाज़ुक इतना कि टूटता रहता है
खुद ही को फिर संभालता है मन
खुद ही के खिलाफ बयान देकर
अपना भडा़स निकालता है मन
कभी बच्चों सा मचल जाता है
कभी हर बात को टालता है मन
फिर सपनों को खंगालता है मन
नाज़ुक इतना कि टूटता रहता है
खुद ही को फिर संभालता है मन
खुद ही के खिलाफ बयान देकर
अपना भडा़स निकालता है मन
कभी बच्चों सा मचल जाता है
कभी हर बात को टालता है मन
आसमान छूने की आरज़ू इसकी
गेंद सा खुद को उछालता है मन
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ग़ज़ल
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Saturday, July 4, 2009
दिनभर काम किया
अब है थककर चूर-चूर
और नहीं है कोई
यह है एक मजदूर
इसको इसकी मेहनत का
प्रतिफल क्या मिलता है?
दो वक्त की रोटी भी
मुश्किल से इनको मिलता है
बच्चे इनके बिलख बिलख कर
खो देते हैं नूर
और नहीं है कोई
यह है एक मजदूर
यह है एक मजदूर
खुले आसमान के नीचे रहकर
औरों का छत ये बनाते हैं
हिम्मत नहीं हारते हैं ये
गीत सदा ही गाते हैं
कब पहुचेंगे ये अपने घर?
घर से हैं ये दूर
और नहीं है कोई
यह है एक मजदूर
यह है एक मजदूर
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