Monday, November 2, 2009
मंजिल की ओर
महज़ एक कदम
और यकीन मानिये मंजिल
एक कदम और नजदीक हो गया
दूसरे कदम ने
और एक कदम नज़दीक कर दिया
तीसरा --
चौथा --
--
और फिर अब तो
मंजिल दूर नहीं है

**********
Tuesday, August 4, 2009
**
कुछ रिश्ते उधार के होते हैं
कुछ रिश्ते प्यार के होते हैं

इतनी बेरूखी अच्छी नहीं है
कुछ रिश्ते इंतज़ार के होते हैं

टूट जाते हैं पल में देखो तो
कुछ रिश्ते तार के होते हैं

नाज़ुक फूल, कब उफ किया!
कुछ रिश्ते खा़र के होते हैं

बिक गये पर इतनी हैरानी क्यूँ
कुछ रिश्ते व्यापार के होते हैं
Monday, July 13, 2009

जाने कितने सपने पालता है मन
फिर सपनों को खंगालता है मन

नाज़ुक इतना कि टूटता रहता है
खुद ही को फिर संभालता है मन

खुद ही के खिलाफ बयान देकर
अपना भडा़स निकालता है मन

कभी बच्चों सा मचल जाता है
कभी हर बात को टालता है मन


आसमान छूने की आरज़ू इसकी
गेंद सा खुद को उछालता है मन
Saturday, July 4, 2009

दिनभर काम किया
अब है थककर चूर-चूर
और नहीं है कोई
यह है एक मजदूर

इसको इसकी मेहनत का
प्रतिफल क्या मिलता है?
दो वक्त की रोटी भी
मुश्किल से इनको मिलता है
बच्चे इनके बिलख बिलख कर
खो देते हैं नूर
और नहीं है कोई
यह है एक मजदूर

खुले आसमान के नीचे रहकर
औरों का छत ये बनाते हैं
हिम्मत नहीं हारते हैं ये
गीत सदा ही गाते हैं
कब पहुचेंगे ये अपने घर?
घर से हैं ये दूर
और नहीं है कोई
यह है एक मजदूर

Sunday, June 21, 2009

मौसम ने अंगडाई ली

बदल छाये हैं घनघोर

रंग-बिरंगे पंखो वाले

नाच रहे हैं देखो मोर

.

सावन की रिमझिम बूंदे

क्यों बैठे हो आंखे मूंदे

हरियाली छाई हर ओर

नाच रहे हैं देखो मोर

.

बढ़ गयी फूलों की लाली

झूम रहे हैं डाली-डाली

चुप हो जा मत कर शोर

नाच रहे हैं देखो मोर

--------------------

चित्र साभार : google

Friday, June 12, 2009

यह ऊंचा मकान

जब अपनी ऊँचाई आंकता है

बेशरम

पड़ोस की झुग्गी-झोपड़ियों में

झांकता है
------------
आईना

पत्थरों के गाँव में,

सूरज पेड़ की छॉव में

मछली देखो

डूबने के डर से

बैठ गयी है नाव में

Tuesday, June 9, 2009


सच्चाई को कहना सीखो
सच्चाई को सहना सीखो

बुलंदी
के अभिलाषी हैं तो
कभी
कभार ढहना सीखो

उजड़
गए हैं घर तो क्या
चौराहों
पर रहना सीखो

पत्थर
-पत्थर छूकर गुज़रो
पानी
-पानी बहना सीखो
Saturday, June 6, 2009


मजदूर माँ के बच्चे का बचपन ऐसे ही पलता है ---- ! !
Friday, June 5, 2009

उजाड़कर बस्ती शोक मनाते हैं
कत्ल करके फिर आंसू बहाते हैं
.
गुमशुदा तलाश में पढ़कर नाम
ख़ुद ही को लोग ढूढ़ने जाते हैं
.
ख़ुद के चेहरों पर लगा कर दाग
आईनों पर देखिये कहर ढाते हैं
.
इस बस्ती से बेखौफ न गुज़रिये
बात-बात पे लोग खंज़र उठाते हैं
.
मज़हबी शिकंजे में जकडे़ ये लोग
फख्र से आज़ादी के गीत गाते हैं
Tuesday, June 2, 2009

आओ!
हम उस ज़मीन को सींचे
जिसके अन्दर
नन्हा बीज छटपटा रहा है
अंकुरित होने को
.
आओ!
हम उस ज़मीन में खाद डाले
जिसके अन्दर
कोमल अंकुर लड़ रहा है
कठोर परतों से
पल्लवित होने को

हमें विश्वास है
हारना ही होगा उन परतों को;
ज़र्ज़र होना ही है
उन दीवारों को
जिसके भीतर
सृजन का एक भी बीज विद्यमान है

आओ!
हम भी अंकुरित हो
एक साथ
ताकि भेद सकें
उन अवरोधों; रूढ़ियों को
जो हमारे अस्तित्व के
प्रस्फुटन में बाधक है

हमारीवाणी

www.hamarivani.com

इंडली

About Me

My Photo
Razia
गृहस्थ गृहिणी
View my complete profile

Followers

Encuesta

रफ़्तार
www.blogvani.com
चिट्ठाजगत